Sunday, December 12, 2010

क्यों जरूरी हैं उमा ?

उमा भारती एक ऐसा नाम जिसे लेने से पहले बीजेपी के आला नेता भी एक बार सोचते हैं । आखिर क्या वज़ह है कि बीजेपी के लिए उमा भारती जरूरी है। जब भी बीजेपी में उमा भारती की वापसी की सुगबुगाहट षुरू होती है। बीजेपी के कुछ नेता असहज होने लगते हैं। वज़ह है उमा भारती का अडियल रवैया। एक बार फिर से बीजेपी में उमा भारती की वापसी के लिए संभावनाएं तेज हो गई हैं। कहा जा रहा है कि पार्टी के सबसे वरिश्ठ नेता लाल कृश्ण आडवाणी ने उमा भारती की वापसी पर अपनी सहमति दे दी है। लेकिन साध्वी के भेश में राजनेता उमा भारती के बीजेपी में पुनर्प्रवेष की सम्भावनाओं पर पार्टी के भीतर ही आपस में तलवारें खिंच गई है। वर्तमान समय में बीजेपी का पद आसीन कोई भी नेता उमा की वापसी के मुद्दे पर सहमत नहीं है। लेकिन बीजेपी की क्या मजबूरी है कि वो बार-बार उमा की वापसी के लिए नए रास्ते तैयार कर रही है। क्या वज़ह है कि संघ तक उमा भारती के मुद्दे पर चुप्पी साध लेता है। मध्य प्रदेष की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने जब बीजेपी से बगावत कर अपनी पार्टी बनाई थी तब ऐसा लग रहा था कि बीजेपी को काफी नुकसान पहुंचाएंगी लेकिन तस्वीर एक दम उल्टी दिखी। उमा भारती ने ना तो बीजेपी को कोई नुकसान पहुंचाया और ना ही अपनी जमीन मजबूत कर पाई। बीजेपी से बाहर रहकर उन्होंने न केवल अपनी ताकत का ही आकलन कर लिया। बल्कि बीजेपी ने भी उनकी ताकत देख ली। कि साध्वी का जनाधार कितना है। बीजेपी से बगावत के बाद उमा भारती के साथ वहीं नेता और लोग दिखे थे जिन्हें या तो बीजेपी में कोई पद नहीं मिला था या फिर लोध जाति के लोग। उमा भारती लोध जाति से आती है। इस जाति का प्रभाव यूपी और एमपी के कुछ जिलों में है। यूपी में कल्याण सिंह को लोध जाति का सबसे बड़ा नेता माना जाता हैं। यही वज़ह है कि यूपी विधानसभा चुनावों में उमा भारती ने अपने उम्मीदवारों को चुनावी समर में नहीं उतारा था। यही हाल गुजरात चुनावों के दौरान भी हुआ था जब अपने उम्मीदवारों के फॉर्म जमा करवाने के बाद नाम वापस ले लिए थे। उमा भारती ने उस समय ये दलील दी थी कि ये फैसला उन्होंने अपने गुरू की आज्ञा के बाद लिया था। लेकिन वास्तव में उमा भारती को मध्य प्रदेष के नतीजे याद थे। वो नहीं चाहती थी कि गुजरात चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े कर वो बीजेपी में वापसी के सारे रास्ते बंद कर लें। इस समय एक बार फिर से उमा भारती और आडवाणी नजदीक आ रहे है। ऐसे कयास लगाएं जा रहे है कि पार्टी उन्हें यूपी विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी की कमान सौंप सकती है। पार्टी उमा भारती की वापसी से एक तीर से दो निषाने लगाना चाहती है एक तो पार्टी में लाल कृश्ण आडवाणी की सबसे करीब उमा भारती की वापसी और दूसरा पष्चिमी उत्तर प्रदेष में कल्याण सिंह के लोध वोट बैंक में सेंध लगाना। लेकिन उमा भारती की वापसी की ख़बरों से बीजेपी के कई नेता असहज हो गए है। बहरहाल उमा भारती बीजेपी में आने को तैयार है लेकिन सही वक़्त के लिए अभी पार्टी इंतजार में है।

Monday, October 25, 2010

योजनाएं बनाम ठंडा बस्ता

योजनाएं बनाम ठंडा बस्ता
एक होता है बस्ता और एक होता है ठंडा बस्ता। आपने बस्ते तो बहुत देखें होंगे लेकिन ठंडे बस्ते के बारे में केवल सुना होगा। या फिर महसूस किया होगा। हमारे देश में समुचित वज़न के आभाव में फाइलें ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। और वो तभी बाहर आ पाती है। जब मुट्ठी गर्म हो जाती है या फिर सुविधा षुल्क का चढ़ावा चढ़ जाता है। यदि आप चाहते है कि आपकी फाइल ठंडे बस्ते का मुंह ना देखें तो फाइल प्रस्तुत करते ही मुंह दिखाई की रस्म अदा कर दीजिए। वरना आप जाने और आपका काम। ऐसा नहीं है कि सिर्फ चढ़ावे या कहें सुविधा शुल्क के अभाव में फाइलें ठंडे बस्ते के हवाले कर दी जाती है। कुछ ऐसी भी योजनाएं है जिनसे फाइलें टेबल-दर- टेबल आगे बढ़ जाती है। यह योजना है जुगाड़ की। जिस तरह देश प्रदेश और राजनीतिक पार्टियों का प्रतीक होता है उसी तरह ठंडा बस्ता भी राजनेताओं और अफसरशाही का प्रतीक होता है। चुनावी रैलियों में नेता बड़े-बडे़ वादे करते है। बड़ी-बड़ी योजनाएं लाने की बात करते है। लेकिन चुनाव जीतने के बाद वादें और योजनाएं ठंडे बस्ते में। इसी तरह हर विभाग में ठंडा बस्ता होता है। जहां फाइलें साल-दर-साल धूल फांकती रहती है। बड़े अरमानों के साथ लोग निवेदन करते हैं आवेदन करते है। और लोगों के ये अरमानों के आवेदन ठंडे बस्ते में पहुंच कर बेदम हो जाते है।
हमारे देश में बड़े ही जोरशोर से योजनाएं बनती है। 2 फुट चौडे़ 3 फुट लंबे ग्रेनाइट के पत्थर पर सुनहरें अक्षरों में योजना और शिलान्यास करने वाले नेता का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा जाता है। लोगों में आशा बंधती है कि अब काम शुरू होगा। कुछ दिनों तक बड़े-बड़े अफसर सर्वे और काम कैसे होगा इसके लिए दौरे करते है। लेकिन योजनाओं को धरातल की वास्तविकता पर आने में सालों बीत जाते है। कभी धन के आभाव में तो कभी सरकारी हुकमरानों की उदासीनता के चलते और अगर इस बीच सत्ता परिवर्तन हो गई तो फिर उस योजना का भगवान ही मालिक है। ग्रेनाइट पत्थर पर लिखे सुनहरें अक्षर वक़्त के साथ काले पड़ जाते है। लेकिन काम ठंडे बस्ते से बाहर नहीं आ पाता।
कभी-कभी ये ठंडा बस्ता दुश्मनी निकालने के काम में भी आता है। यदि कोई सीधे आपसे नहीं भिड़ सकता तो वो आपकी फाइल अपने प्रबंध तंत्र सक्रिय कर ठंडे बस्ते में पहुंचा देता है। ठंडा बस्ता वो बिच्छू है जिसका कंाटा पानी भी नहीं मांगता। अभी-अभी तो जवानी के दिनों में गई फाइल तब बाहर आती है। जब आप अपनी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर होते है। वैसे भी जब सूखे में पूरी फसल बर्बाद हो गई उसके बाद बरसें पानी का क्या काम। आज देश युवाओं का है। हर क्षेत्र में युवा आगे आ रहे है। वो कुछ करना चाहते है। लेकिन कुछ वरिष्ठ लोग उनके कामों में रोड़ा बन जाते है। युवा में जोश होता है। वो पहले दिन आफिस में आकर देखता है कि दो अधिकारियों के बीच में इतनी फाइलें इक्कट्ठा हो गई है। कि दीवार बन गई। वो इन फाइलों की बनी दीवार को गिराना चाहता है। कुछ दिनों तक एक दो ईट गिराता है। लेकिन दो चार महीने बीतने के बाद उसे भी आटे-दाल का भाव पता चल जाता है। वो देखता है कि एक ओर वो दीवार गिरा रहा है तो दूसरी ओर एक मजबूत दीवार खड़ी हो रही है। जिसकी चार दीवारी में रिटायर्ड होने तक काम करना है। ये हमारे देष की ऐसी व्यवस्था है जिससे हमें अपने जीवन में कई बार दो चार होना पड़ता है। हम चाहते है कि व्यवस्था में सुधार हो लेकिन कही ना कही इस व्यवस्था के लिए हम ही ज़िम्मेदार है क्योकि हम लोग ही है जो आपने काम को जल्दी पूरा कराने के लिए सुविधा षुल्क दे देते है। यानी अगर हम अपनी सोच बदलेंगे तो समाज की सोच अपने आप बदल जाएगी। महेश चतुर्वेदी

नफे-नुकसान के तराजू पर जाति

नफे-नुकसान के तराजू पर जाति
हमारे आसपास की दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है। अमूमन इसका अहसास हमें तभी होता है। जब हम कुछ अरसे बाद किसी पुरानी जगह पर जाते है। आज के वक़्त में गांव के भौगोलिक स्थिति में खास अंतर नहीं आया था। और न ही उस पूरे क्षेत्र की आर्थिक या सामाजिक स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा था। पक्की चौड़ी सड़क ने जरूर इस गांवों को आसपास के दूसरे गांवों से जोड़ दिया है लेकिन यहां आज भी ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने है। मगर जो बदलाव इस दौरान इस गांव में आए। वो है लोगों की सोच। देष में हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में इस बार फिर जाति की फांस अटक गई है। जनगणना में जाति को षामिल करने की मांग आज से दस साल पहले 2001 में जनगणना षुरू होने से पहले भी उठी थी। पर तब इस मांग को बिना किसी सुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
जाति के तरफदारः इस बार जनगणना के साथ राश्ट्रीय पापुलेषन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है। इसके आधार पर हर नागरिक को परमानेंट आइडेंटीफिकेषन मिलेगा। यानी जिसकी जो पहचान होगी। वह कुछ दिनों के लिए दस्तावेज बंद होकर तय हो जाएगी। इसीलिए दस साल पहले जो मांग अधिकतर पिछड़ा वर्ग कमिषनों की सिफारिषों और जनसंख्यिकी के कुछ विद्वानों की मार्फत कमजोर स्वरों में की गई थी। इस बार उसे पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली पार्टियां जोरषोर से उठा रही है। यहां तक कि बीजेपी जैसे राश्ट्रीय दल ने भी इसके पक्ष में है। यूपीए सरकार के भीतर भी जाति और जनगणना को जोड़ने के तरफदार मौजूद है। और उनके दबाव के कारण इसके खिलाफ फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं है। सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है। केवल यही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसीलिए षुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होनें संख्याओं का इस्तेमाल किया,पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व-अछूतों और आदिवासियों की विषेश स्थितियों के मदद्ेनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था। इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया।
राजनीति का आरक्षण........
संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय षैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में षामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई। आरक्षण,जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेषी थी। उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू है। पहला सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया षुरू हुई। दूसरा पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और साथ में उन्हें नौकरियों और षिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न अब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक षिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम है। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुक्ता बहुत कम होती है। यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता। तो उसके क्या परिणाम निकलते। उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है। वह काम नहीं हो पाता। दूसरे जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते है। वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते है। कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है। पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे गिनती में जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेष तो करते ही उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निष्चित संख्याएं नहीं है। इसलिए ऐसी मांगो को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा षामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंधन करते हुए। स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़

महेश चतुर्वेदी

Monday, June 14, 2010

बीजेपी का ब्रम्हार्स्त है मोदी

पटना के गाँधी मैदान में बीजेपी ने विधान सभा चुनाव से पहले शक्ति प्रदर्शन कर अपनी ताकत को दिखा दिया। बीजेपी की ये रैली जनता दल (यू ) के लिए काफी नुकसान दायक हो सकती है। इस लिए रैली से पहलेही नितीश बाबु मोदी के साथ फोटो छपने पर आग बबूला हो गए। आलम ये था की नितीश ने कानूनी करवाई की धमकी तक दे डाली। १३ जून को नरेन्द्र मोदी जैसे ही स्वाभिमान रैली को संबोधित करने के लिए उठे तो गाँधी मैदान का नज़ारा मोदी मैहो गया। हर तरफ से मोदी की जय जय कर की आवाज़े आ रही थी। मोदी ने जैसे ही बोलना शुरु किया मानो कई महीनो से गर्त से समाई बीजेपी को नईजान मिल गयी हो। मोदी एक बार फिर अपने चित परचित अंदाज़ में दिखे। मोदी ने आतंकवाद, नक्सलवाद , महगाई , और भोपाल गैस त्रासदी के लिए कांग्रेस को सीधे जिम्मे दर बताया । मोदी ने सोनिया गाँधी से उन्ही शब्दों में जवाब मागा जिन शब्दों में सोनिया ने लोक सभा चुनाव के दौरान मोदी से गोधरा कांड के लिए जवाब मागा था। मोदी ने सोनिया से पूछा की भोपाल गैस कांड के दोषियों को भगाने वाला कौन है? मोदी के ये सवाल बीजेपी के लिए प्राण वायु बन गए । जो बीजेपी मुद्दों के विहीन थी उसे अचानक मुद्दा मिल गया। मोदी के ये बाण कांग्रेस के लिए बहुत घातक साबित हुए। इतना ही नहीं मोदी के भाषण के कुछ देर बाद सारे राजनीतिक दलों के नेता टीवी पर बयां देते नज़र आये। साफ है की बीजेपी के प्रमुख नेता जब बोलते है तो सब चुप रहते है लेकिन जब मोदी बोलते है तो सब मैदान में उतर आते है। जाहिर है की मोदी का कद बीजेपी के नेता से भी बड़ा हो गया है। इस लिए जब मोदी बोलते है तो राजनीतिक दलों के कान खड़े हो जाते है....... आखिर मोदी तो मोदी है भाई ..............

Thursday, June 10, 2010

अब क्यों जागी सरकार?

1५२७४ मौते , ५ लाख से ज्यादा लोग गैस से पीडित , वक्त २५ साल , आरोपी १२ एक की मौत एक फरार , सजा केवल २ साल , जुरमाना १-१ लाख रुपए जमानत पर रिहा २५-२५ हजार के मुचलके पर, क्यां गैस पीडितो के लिए यही न्याय है। क्या कोर्ट के फैसले से उनलोगों के दिलो के जखम भर जायेगे। २५ साल बीत गए और सरकारे कुम्भकरनी नीद सोती रही लेकिन अब ऐसा क्या हो गया । कि राज्य ही नहीं केंद्र सरकार भी जाग गई । यहाँ तक की सत्ताधारीपार्टी के दो दिग्गज नेताआपस में शुरुहो गए । दोनों में से एक तत्कालीन राज्य सरकार के मुख्यमंत्री को बचा रहे है तो दूसरा उन्हें घसीट रहा है। आज जितने भी खुलासे हो रहे है। वो २५ सालो के दौरान क्यों नहीं हुए । जो अफसर आज नेताओ और बड़े अफसरों को दोसी बता रहे है । क्या वो दोसी नहीं ? क्यों की देश में किसी मामले को दबाना , या अपने पद का दुरपयोग करना अपराध है। जो अफसर आज न्याय की बात कर रहे है वो तब क्या सो रहे थे। तब उनका जमीर नहीं जागा। ऐसा क्या हो गया जो कल तक अपनी जुबान नहीं खोलते थे। आज पूरी कथा सुना रहे है..... ये अपने आप में एक सवाल है? इसका जवाब कौन देगा। क्या ये लोग दोसी नहीं मुख्य आरोपी को भगानेमें। अगर इन लोगो ने तब अपनी जुबान खोली होती तो शायद आज नतीजा कुछ और हुआ होता। अगर इन अफसरों को उस दिन अपना फर्ज याद होता तो शायद आज न्याय की आसमें लोगो को भटकना न पड़ता............... सयाद अब न्याय मिल जाये तो दोसी कौन होगे.....



Wednesday, March 10, 2010

यूं तो ये बात जगजाहिर है कि गुंण्डे-माफिया हाथी के महावत बन गए हैं। पर चुनावों में लाज-शरम ही सही उनको अपने दायरे में रहना पड़ता था। पर पिछले दिनों जिस तरह से इंडियन जस्टिस पार्टी के बहादुर लाल सोनकर की हत्या की गई और फिर सोनकर समाज के वोट को रोकने का जो सर्वसमाज अभियान चलाया जा रहा है वो बहन जी को मंहगा पड़ सकता है। सत्ता के मद में चूर जंगली हाथी के दिल्ली कूच के सर्वजन अभियान में बहुजन का उसके प्रति विक्षोभ बढ़ता ही जा रहा है जो दूसरे चरण के मतदान के दौरान इलाहाबाद, फूलपुर, कौशांबी और बांदा समेत आस-पास की सीटों पर साफ दिखा।

कभी
जवाहर लाल नेहरु की सीट रही फूलपुर के मैनापुर, मदारीपुर, जलालपुर,
तारापुरा समेत यमुना किनारे के बीसियों गांवों ने चुनाव बहिष्कार कर दिया।
जलालपुर में जहां 215 वोट पड़े वहीं लोकतंत्र की लाठी के बदौलत तारापुर
में 20 वोट पड़े। "साहब हमारा गांव अंबेडकर गांव है पर यहां न बिजली है न
पानी है ऊपर से है तो करवरिया, तो फिर हम क्यों वोट दें।" मैनापुर के
फूलचंद निषाद का यह संबोधन बसपा प्रत्याशी कपिल मुनि करवरिया के लिए था।
वे आगे कहते हैं कि करवरिया की ये जो चमचमाती हुई गाड़ियां देखते हैं वो
हम बालू मजदूरों के खून को चूस कर ली गई हैं। निषाद जो बसपा के पारंपरिक
वोटर है आज वो नदी से बालू निकालने के लिए हर खेप पर 200 रुपए बालू
माफियाओं को देने के लिए मजबूर हैं। यहां करवरिया की पूरी पहचान ही बालू
ठेकेदार की है। यहीं के रामचंद्र निषाद बताते हैं कि 200 वाला रेट नया है
इससे पहले 100 और 50 वाला था। पूछने पर कहते हैं कि साहब करवरिया को बहन
जी को पैसा देना होता है न।

यमुना
के इस पूरे क्षेत्र में बालू माफियाओं के खिलाफ चल रहे आंदोलन में सीपीआई
एमएल न्यू डेमोक्रेसी की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेसी के इस पूरे
आंदोलन को नक्सल गतिविधियों के रुप प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है।
जिसे करवरिया पोषित स्थानीय मीडिया जोर-शोर से कर रही है। जबकि न्यू
डेमोक्रेशी चुनावी लोकतंत्र में आस्था रखने वाली पार्टी है इसकी तस्दीक
इलाहाबाद से उनके प्रत्याशी हीरालाल का चुनाव लड़ना है। न्यू डेमोक्रेसी
के नेता सुरेश चंद्र कहते हैं कि लाल सलाम का हौव्वा खड़ा कर इस पूरे
क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची में लाने साजिश चल रही है,
जिससे उसके नाम पर भारी पैमाने में यहां सरकारी पैकेज आए और शासन-प्रशासन
उसकी बंदरबाट कर सके।

`हां
हम लोगों ने ही मारा। मारा ही नहीं नंगा करके पीटते हुए घुमाया और सूअर
बाड़े में बंद कर दिया था। वो हमारे जाति-बिरादरी के लोगों को मारकर पेड़
पर टांग दे रहे हैं और हमसे कह रहे है, वोट हमें ही पड़ेगा नहीं तो कहीं
नहीं पड़ेगा।´ नाम पूछने पर उस पूरे समूह के माथे पर रोष की लकीरें साफ तन
जाती हैं, जो एक स्वर में गुस्से से कहते हैं कि पुलिस में रपट लिखाओगे न,
जाओ लिखा देना पूरे गांव ने उसे पीटा था। इलाहाबाद लोकसभा क्षेत्र के
भुंडा गांव में बसपा के `ब्राह्मण भाई चारा समीति´ के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ
पाण्डेय ने सोनकर समाज के लोगों को अपने पक्ष में वोट डालने या कहीं नहीं
डालने के लिए दो तीन दिनों से लगातार धमका रहे थे। आखिरकार पारा तेइस
तारिख को मतदान बूथ पर गर्म हो गया और सोनकर समाज के लोगों ने उन्हें बुरी
तरह पीटा।

बालू
खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना भी बालू मजदूरों को बेरोजगारी
और भुखमरी की ओर धकेल चुका है। जब कि सरकार और न्यायलयों ने अपने कई
महत्वपूर्ण निर्देशों में स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का
उपयोग किसी भी सूरत में न हो। लेकिन भ्रष्ट प्रशासन और हाथी सवार माफिया
की मिली भगत से उच्चन्यायलय के निर्देशों की खुलेआम धज्जीयां उड़ाई जा
रहीं है। चायल के एस.डी.एम. अनिल कुमार उपाध्याय तो पूरी बेशर्मी से झूठ
बोलते हुए बालू उत्खनन माफिया द्वारा मशीनों के इस्तेमाल को वैध बताते हुए
दावा करते हैं कि हाईकोर्ट ने ही मशीनें लगाने का निर्देश दिया है। लेकिन
वे न तो फैसले की तिथि बताने को तैयार है और न ही उसकी प्रतिलिपी ही
दिखाने को।

जबकि
सच्चाई तो यह है कि जब बालू मजदूरों ने अपना रोजगार छिनते देख मशीनों को
बंद करने के लिए दसियों हजार की संख्या में जिला मुख्यालय पर धरना दिया तब
उच्च न्यायलय ने मामले को स्वत: ध्यान में लेते हुए इसमें हस्तक्षेप किया।
मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और
न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों
के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया
कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय।
आदेश में आगे सरकार सेे इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए बालू माफिया के
खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का आदेश भी दिया गया। लेकिन जब विधानसभा में
पूर्ण बहुमत हो, विपक्ष भ्रष्ट और अलोकप्रिय हो, और सपना प्रधानमंत्री
बनने का हो तब न्यायलयों की फैसलों की क्या औकात। हाथी के गणेश बनने के
बाद उस पर सवार हुए कपिल मुनी करवरिया हों या कबीना मंत्री और `इनको मारो
जूते चार´ के जमाने वाले ख़ाटी महावत इंद्रजीत सरोज सभी की मशाीनें अपने
ही पारंपरिक मल्लाह वोटरों को मुंह चिढ़ा रही हैं। दरअसल इस पूरे क्षेत्र
में दबंगई, वो चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, का अखाड़ा नदी और रेत ही रहा
है। जिस पर करवरिया कुनबा शुरु से ही एक मजबूत पाला है। जिसके आतंक का
अंदाजा इसी से लग जाता है कि कपिल मुनि करवरिया के पिता वशिष्ठ मुनि
करवरिया ऊर्फ भुक्कल महराज जिन पर आधा दर्जन हत्या और डकैती के आरोप थे
अपने विरोधियों को पालतू मगरमच्छों के आगे जिन्दा डाल देने के लिए कुख्यात
थे। भुक्कल महराज पर ये भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की राइफल से 17 पासी
समाज के लोगों की हत्या कर यमुना में फेंक दिया था।

इस
पूरे इलाके में पासी मत निर्णायक है। इसी के चलते कौसांबी सुरक्षित सीट से
गिरीश पासी पर बसपा ने अपना दांव चला। बालू माफिया की पहचान वाले गिरीश ने
पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के राजनैतिक खासमखास सीपी सिंह की हत्या से
अपने `राजनैतिक करियर´ की शुरुआत की थी। कपिल मुनि करवरिया को टिकट मिलने
के चलते पासियों का एक बड़ा खेमा गिरीश के साथ नहीं है। जिसका असर ये रहा
कि मल्हीपुर से जहां ईवीएम को बैरंग लौटना पड़ा तो वहीं नंदापुर में एक
सैकड़ा भी मत नहीं पड़ा। यहां भी यमुना किनारे के दर्जनों गांवों के बालू
मजदूरों ने लोकतंत्र के इस महोत्सव का बहिष्कार कर अपनी मांगों को केंद्र
में ला दिया। इस राजनीति को गौर से देखने वाले मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर के नेता राजकुमार पासवान कहते हैं `बसपा से दलितों की दूरी बढ़ रही है,
जिसे दलितों के नाम पर बनी अन्य पार्टियां एक हद तक आकर्षित करने में सफल
भी रही हैं।´ पर वे इस नए दलित उभार पर अविश्वास की मुहर लगाते हुए कहते
हैं कि चाहे बसपा हो या इंडियन जस्टिस पार्टी ये सभी ब्यूरोक्रेटों द्वारा
खड़ी की गई पार्टियां हैं। जो उदित राज बसपा पर दलित आंदोलन को कुंद करने
का आरोप लगाते हैं उन्होंने क्यों नहीं बहादुर लाल सोनकर की हत्या को
राजनैतिक मुद्दा बनाया। वे मायावती की कार्यनीति पर सूक्ष्मता से निगाह
डालते हुए कहते हैं कि बहन जी कानून व्यवस्था की बात करती हैं पर क्या
उन्होंने कभी मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा की या फिर किसी दलित उत्पीड़न की
घटना पर कोई आंदोलन खड़ा होने दिया। ऐसा उन्होंने नहीं किया क्योंकि वे
जानती हैं कि प्रतिरोध की चेतना से लैस दलित उनकी भी खिलाफत कर सकता है।
बहरहाल सर्वसमाज के इस बिगड़ते समीकरण का खामियाजा कांग्रेस से बसपा में
आए राजनैतिक गणितबाज अशोक बाजपेयी को इलाहाबाद में भुगतना पड़ सकता है।

Sunday, March 7, 2010

बदहाल विधर्व

आने वाले गर्मी के मौसम में भीषण जल संकट पैदा होने के आसार अभी से दिखाई दे रहे हैं। चारे के अभाव में पशुओं पर गंभीर संकट पैदा होगया है। किसान पशुओं को खूंटे से बांधकर मारने की बजाय उसे कसाईयों हवाल कर कुछ पैसे पाना उचित समझ रहे हैं। क्यों की किसानो के पास उन्हें खिलने न पर्याप्त चारा है और न ही पर्याप्त धन जिससे वो चारा खरीद सके। इन दिनों विदर्भ के अकोला, यवतमाल, नागपुर, वर्धा, वाशिम जिलों में जलसंकट की स्थिति गंभीर होती जा रही है। अतरेदिन पता चलता है कि लोग पानी के लिए मारपीट पर उतारू हो रहे हैं। तो आने वाले अप्रैल-मई-जून में स्थिति कितनी भयानक होगी, जिसके बारेमे सोचने से ही सिहरन होने लगी है। पिछले साल बारिश के दिनों में बेहद कम बारिश का झटका किसानों को लगा है। सफेद सोना कहे जाने वाले कपास की फसल ने इस बार भी धोखा दिया। व्यापारियों द्वारा की जा रही लूटपाट के कारण किसानों ने कपास से मुंह मोड़कर सोयाबीन को अपनाया। विदर्भ में सोयाबीन की बुआई में इजाफा हो गया लेकिन सोयाबीन को बारिश ने धोखा दे दिया। बारिश के अभाव में सोयाबीन पर लष्करी इल्लियों का प्रकोप हो गया। चंद्रपुर-वर्धा जिलों में इन इल्लियों के कारण हाहाकार मच गया। जिस क्षेत्र में लष्करी इल्लियों का प्रकोप नहीं था, वहां अज्ञात बीमारियों ने सोयाबीन को झटका दे दिया। सोयाबीन का उत्पादन घटकर प्रति एकड़ 2 क्विंटल पर आ गया। इससे पूर्व यही उत्पादन प्रति एकड़ 5 क्विंटल से ज्यादा था। बाजार में भी सोयाबीन के भाव कम हो गए। धान का कटोरा कहे जाने वाले गड़चिरौली, चंद्रपुर, भंडारा, गोंदिया जिले के किसान भी परेशानी में फंस गए। भारी मेहनत के बाद उनके हाथ में आया अनाज किसानों की आंखों में आंसू लाने वाला रहा। पशुओं के लिए तो महज तनस ही हाथ लग पाया। कमजोर बारिश के कारण विदर्भ में जलस्तर भी घट गया है। रबी का फसल के लिए पानी मिलना मुश्किल हो गया है। तालाब से फसल के लिए दिया जाने वाला पानी पीने के लिए सुरक्षित रखा जा रहा है। फसल को 4-5 पानी की जरूरत वाले किसान चिंतित नजर आ रहे हैं। सरकार जब अभी से जलसंग्रह को नियंत्रित करने में लगी है, तो गर्मी के दिनों में जलसमस्या कितनी भीषण होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इस वर्ष विदर्भ का कोई भी जलाशय पूरी तरह नहीं भरा। अधिकतर जलाशय तो 40 प्रतिशत भी नहीं भर पाए।
कमजोर बारिश के कारण जलसमस्या के साथ-साथ पशुओं के लिए चारे का संकट किसानों के सामने है। जानकार कहते हैं कि इसी संकट के कारण सैकड़ों गायों को कसाइयों के हवाले किया जा चुका है। खेती के लिए किसानों को अच्छे बैलों की जोड़ी मिलना मुश्किल हो गया है। 5 वर्ष पूर्व 10 से 12,000 रूपये मे मिलने वाली बैलजोड़ी की कीमत आज 30 हजार रूपये से ऊपर पहुंच गई है। खेती के लिए निरूपयोगी, कमजोर पशु ही पहले कसाइयों को बेचे जाते थे, लेकिन इन दिनों चारे के अभाव के कारण मजबूत व उपयोगी पशु भी कसाइयों के हाथों बेचे जा रहे हैं। 30 हजार वाले पशु महज 5 से 7 हजार रु. में भी बेचकर किसान अपना घर चलाने का मजबूर हो रहे हैं।

Tuesday, March 2, 2010

महगाई पर मच मच

आज पूरा देश महगाई हा हा कार कर रहा है। देश के नेता अपनी सियासत की रोटी सेक रहे है। खुद तो भर पेट खाना खा रहे है॥ और देश की आवाम को पेट पर गीला कपडा बाधकर सोने को मजबूर कर रहे है। देश भर में आये दिन कही न कही नेता सरकारके खिलाफ मोर्चा बंदी करते दिख जाते है। इस मोर्चे बंदी में नेता तो अपना हित सोच लेते है। लेकिन उस आम आदमी के बारे में जरा भी नहीं सोच ते। जिसके वोट से वो जीत कर सडक से संसद तक का सफर तयकरते है। देश में इस समय बजट सत्र चल रहा है। सरकार के पास कई विधेह्क है जिन्हें वो इस सत्र में लाना चाहती है। लेकिन महगाई के लिए सरकार केवल आश्वासन दे रही है। कर कुछ नहीं रही प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह कहते है की जल्द महगाई पे काबू पा लिया जाइये गा। लेकिन कब ये सायद प्रधान मंत्री को भी नहीं मालूम। संसद में विपक्च भी हंगामा से जयादा कुछ नहीं कर रहा है। कभी स्पीकर के आसन तक आ जाना तो कभी सदन से वक् आउट कर जाना। क्या महगाई के लिए सरकार ही जिमेदार है। मेरा मानना है। की महगाई के लिए एक सरकार नहीं बल्कि पूरा देश और उसके नेता और उनकी नीतिया जिम्मे दार है।अगर देश और आम आदमी का सही मायने विकास करना है । तो हमें खुद से पहले देश के बारे में सोचना होगा.

Wednesday, January 20, 2010

उत्तर प्र देश में समाजवाद

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का आज जो हल है उसके लिए हर एक आदमी अमर सिंह को दोसी मान रहा है लेकिन मेरा मन नहीं मानता की समाजवादी पार्टी की इस दसा के लिए अमर सिंह दोसी है। समाजवादी पार्टी आज जिस दसा में है उसके लिए कही न कही वो सारे समाजवादी दोसी है जो खुद को देश का सबसे बड़ा समाजवादी कहते है... अगर सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की बात करे तो आज भी उत्तर प्रदेश का हर समाजवादी उनके साथ खड़ा है। राम मनोहर लोहिया के बाद मुलायम सिंह ही एसे समाजवादी नेता है जिन्होंने पूरे उत्तर प्रदेश में समाजवाद की लो जलाई थी। लेकिन शायद सत्ता के लालच में समाजवादी पार्टी के नेताओ ने आज समाजवादी पार्टी को इन हालातो में ला दिया है.... फिर आप पार्टी के इन हालातो के लिए अमर सिंह को जिमेदार माने या मुलायम को लेकिन तस्वीर के पीछे कोई और ही है.... जो चिला चिला कर खुद को समाजवादी कह रहा है... अमर सिंह का इस्तीफ़ा शिव्कार कर मुलायम सिंह ने उन समाजवादियों को एक मौका जरूर दे दिया है.... जो पार्टी के लिए खून बहाने का नाटक किया करते है॥ लेकिन जब वक्त आता है तब नेता जी के पीछे खड़े हो जाते है... यादयही दिखा सपा के इन दिनों चल रहे जेल भरो आन्दोलन में जो केवल नाम का ही आन्दोलन रह गया है.
चलिए हम बात करते है समाजवाद की उत्तर प्रदेश में अगर १९९० के पहले की बात करे तो शायद ही कोई हो जो समाजवाद की भाषा जनता हो..... अगर हम पूरे देश की बात करे तो आज भी कुछ ही लोग होगे जिन्हों ने समाजवाद के जनक डॉ राम मनोहर लोहिया की सप्त क्रांति को पड़ा हो गा। या कहे जो लोग आज खुद को समाजवाद का पुरुधा कह रहे है... उन्हों ने किताब को कितना पड़ा होगा। अगर उत्तर प्रदेश के लोगो को सही मायने में समाजवाद का पाठ किसने सिखाया तो सबसे पहले मुलायम सिंह का ही नाम सामने आता है। मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने एक दसवी क्लास के स्टुडेंट को अपने हक़ के लिए समाज से लड़ना सिखाया.... ये मुलायम ही थे जिन्हों ने लोहिया के पाठ पर चल के पूरे देश को हमेसा जोड़ने की बात की ... लेकिन जिस तरह किसी घर के सभी लोग एक जैसा नहीं काम करते उसी तरह समाज वादी पार्टी में सारे नेता एक सा काम नहीं करते... कुछ केवल कुर्सी पाना चाहते है तो कुछ सत्ता की आढ़ में आपना काम निकलना चाहते है...