Sunday, July 3, 2011

आज मेरी विदाई है ...........................

30 जून 2011 ये मेरी विदाई की तारीख है। आज के बाद लोग मुझे बीता हुआ कल कहेंगें। मैं कभी देष की अर्थव्यवस्था हुआ करती थी आज बीता हुआ कल हूं। अब लोग मुझे अपनी जेब में भी रखना पसंद नहीं करते। कभी मैं देष के नन्हे मुन्नों की षान थी। मैं बच्चों की सबसे प्यारी दोस्त थी। वो जो कुछ भी पाना चाहते थे मेरे बदले में पा लिया करते थे। मैं चवन्नी हूं। बात बहुत पहले की है जब मैं और लेखक गहरे दोस्त हुआ करते थे। वो हमेषा मुझे अपनी जेब में रखता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से हम दोनों साथ नहीं वज़ह है अब उसके नये दोस्त बन गए हैं। अब वो बड़े सिक्कों और रूपयों के साथ दोस्ती करता है। मेरे दोस्त की बड़े सिक्कों और रूपयों की चाहत में मैं बहुत पीछे छूट गयी। मुझे इस बात का जरा सा भी गम नहीं कि आज मैं और मेरा दोस्त साथ नहीं है। बस गम इस बात का है कि वो आज मेरी आखिरी विदाई पर दो आंसू तो दूर मेरे और उसके साथ बीते अतीत के पलों को भी याद नहीं कर रहा है। मुझे इस बात का गम नहीं कि आज मेरी आखिरी विदाई है। मुझे तो लोगों ने बहुत पहले ही अपनी जेबों से विदा कर दिया था। कभी मैं भगवान के दर की षोभा थी भगवान के भक्त मेरे साथ एक रूपये को मिला कर चढ़ावा चढ़ाते थे बीसआना। अब मेरी भी वहां जगह नहीं है। कभी मुझे लेकर इस देष के लोग अपनी छोटी-छोटी जरूरतें पूरी किया करते थे। मैं देष की बड़े से बड़े कारोबारी की अहम जरूरत थी। कभी-कभी तो मुझ को ही लेकर बड़े-बड़े विवाद हो जाया करते थे। लेकिन वो सारी बातें मेरे लिए बेमानी हैं। जब मेरा दोस्त छोटा था तो स्कूल जाते समय अपनी मम्मी से मुझे मांगना नहीं भूलता था। वो स्कूल ले जाकर इंटरवल में मुझ से कभी टॉफी तो कभी लॉलीपॉप के मजे लिया करता था। षाम को क्रिकेट खेलने जाता और जब कभी गेंद खो जाती तो बच्चे मुझे मिलाकर नई गेंद ले आया करते थे। इस तरह हम दोनों एक दूसरे की बहुत बड़ी जरूरत थे। लेकिन जब वो थोड़ा बड़ा हुआ तो उसका एक और नया दोस्त बन गया मुझसे बड़ी अठन्नी। मेरा और मेरे दोस्त का साथ स्कूल तक ही रहा जब वह कालेज पढ़ने गया तब हम कभी कभार ही साथ हुआ करते थे। आज वो मुझे चाह कर भी नहीं पा सकता। कुछ सालों पहले वो एक प्राचीन मंदिर में देवी के दर्षन करने गया था। जहां पर केवल बीसआना ही चढ़ावे में चढ़ते है। तब मेरे दोस्त को मेरी कुछ पल के लिए याद आई। बड़ी मुष्किल से एक माली से उसने बड़े सिक्कों के बदले मुझे लिया था। ये हमारी आखिरी मुलाकात थी। इसके बाद हम कभी नहीं मिले। अब तो वो लोग भी मुझे अपने पास नहीं रखते जिन्हें समाज के लोग मुझे दान में दे दिया करते थे। वज़ह है आज मैं चलन में नहीं हूं। कोई दुकानदार, रिक्षेवाला, ऑटोवाला, नहीं लेता। बात बहुत लम्बी है सुनाऊंगा तो किताब भी कम पड़ जाएंगी। क्योकि कहीं ना कही मैं देष के हर आमो-खास के साथ जुड़ी रही हूं। मैं बेवज़ह विदा नहीं हो रही हूं। सरकार ने मुझे विदा करने की वज़ह बताई है मेरी लागत में लगने वाला पैसा सरकार कहती है कि जितनी मेरी कीमत है उससे ज्यादा मेरी लागत है। दोस्तों ये मेरा आखिरी सलाम है बस दोस्तों एक बात याद रखना जिस तरह आप अपने पुराने दोस्तों को कभी कभार याद कर लिया करते हो उसी तरह साल दो साल में मुझे जरूर याद कर लेने मैं समझूंगी कि आज भी हम साथ हैं। खुदा हाफ़िज...................

Sunday, April 3, 2011

मैं वानखेडे बोल रहा हूं......

आज मैं गवाह बन गया हूं उस इतिहास का जो सैकड़ों वर्षो तक दुनिया की आवाम की जुबान पर सुनाई देता रहेगा। मैं गवाह बन गया हूं उस सोच का जिसमें हौसला है अपने सपनों को साकार करने का। मैं गवाह हूं उस 121 करोड़ के सपनों का जिसने सोचा था कि मेरी पिच पर क्रिकेट के भगवान का सपना साकार हो जो वह पिछले 22 सालों से देख रहे थे। आखिरकार 28 साल बाद वो घंडी आ ही गई। मुंबई के अरब सागर के किनारे जब मुझे बनाया गया तब शायद ही मैंने या मुझे बनाने वालों ने सोचा होगा कि एक दिन मैं इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाऊंगा। तारीख 2 अप्रैल 2011 वो दिन था जब मैं इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया । आज मैं गवाह बना गया हूं उन लोगों की आंखों का जिन्होंने बड़ी चाह से यहां बैठ कर भारत श्रीलंका के बीच हुए ऐतिहासिक मैच को देखा। टीम इंडिया की जीत के साथ ही मानों देश की 121 करोड़ आवाम की सारी मन्नतें पूरी हो गई हो। उस रात ऐसा लग रहा था कि देश में आज सारे त्योहार एक साथ आ गये है। और लोग सोच नहीं पा रहे कि वो दिवाली मनाएं,दशहरा मनाएं, या फिर होली या ईद। देश में आज कोई त्योहार नहीं था लेकिन फिर भी लोग मिठाईयां बांट रहे थे पटाखें फोड़ रहे थे, अबीर गुलाल लगा रहे थे, गले मिल रहे थे। हो भी क्यो ना आज देश में सबसे बड़ा त्योहार जो था। धोनी की सेना ने 28 साल बाद भारत को वर्ल्ड कप की सौगात जो दी थी। टीम इंडिया के खिलाड़ी जब जीत के बाद सचिन को कंधों पर उठाकर मेरे चारों ओर चक्कर लगा रहे थे। तब मेरे बगल में अरब सागर की लहरें अचानक ऊपर उठने लगी मानों वो भी क्रिकेट के भगवान को अपने कंधों पर उठा लेना चाहती हो। टीम इंडिया की जीत के बाद सारा देश खुश था तो क्रिकेट के भगवान की आंखे नम थी। जाहिर है ये उस जीत के आंशू थे जिसका इंतजार सचिन की आंखे पिछले 22 सालों से कर रही थी।

Monday, January 3, 2011

भाई लोग कुछ तो सोचो .....

दिल्ली में पिछले दिनों पुस्तक मेला लगा जिसमें देष ही नहीं विदेषों के भी प्रकाषकों ने भाग लिया। लेकिन लोगों ने कितना भाग लिया इसका अंदाजा लगाना मुष्किल है। क्योकि लोगों को जितनी संख्या में पहुंचना था उतनी संख्या में नहीं पहुंचे। कुछ ने सर्दी को वज़ह बताया तो कुछ ने कहा कि क्या करेगें जाके। मेरे ही कुछ दोस्तों ने तो यहां तक कह दिया कि पागल है क्या बुक फेयर जाएगा। न्यू ईयर पर कही और घूम के आ। नया साल था तो मैंने सोचा साल भर छुट्टी के दिन तो कही ना कही घूमने जाता हू। लेकिन इस बार बुक फेयर ही जाऊगा। वहां पहुंच के लगा कि मेरे दोस्त आने के लिए क्यों मना कर रहे थे। मेले दिल्ली का वो यूथ गायब था जो ट्रेड फेयर के दौरान प्रगति मैदान में दिख रहा था। बुक फेयर में जो लोग पहुंचे थे उनमें से ज्यादातर अपने बच्चों के साथ घूमने आए थे। ऐसा नहीं है कि मेले में लोग केवल मौज मस्ती के लिए ही आए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो पुस्तकों के इस मेले का भरपूर लाभ लेने के इरादे से यहां पहुंचे थे। क्योकि उन्हें मालूम है कि ये दिल्ली में साल में एक बार होने वाला पुस्तकों का महा कुंभ है। इस लिए वो इसमें डुबकी लगाने से भी नहीं चूकना चाहते। मेले में प्रकाषकों ने भी लोगों को लुभाने के लिए तरह-तरह के डिस्काउंट दे रखे थे। कोई दस फीसदी डिस्काउंट दे रहा था तो कोई 40-50 फीसदी तक का डिस्काउंट दे रहा था। लेकिन यहां का आलम देख कर बड़ा अजीब लगा। कि जो लोग पीज़ा,बर्गर और बड़े होटलों में डिस्कांउट और बिल नहीं देखते वो यहां 100 रूपये से भी कम कीमत की किताब पर डिस्कांउट देख रहे थे। षायद यही भारत की तस्वीर है कि अमीर के पास एैषो आरम के लिए तो पैसे है लेकिन ज्ञान की पुस्तकों के लिए पैसे नहीं है। लोग अपने बच्चों को आज डॉक्टर,इंजीनियर, और ना जाने क्या-क्या बनाना चाहते है। लेकिन लेखक नहीं बनाना चाहते। ये भी देष के एक विडंबना है। ये सवाल है खुद से हर उस इंसान से जिन्हें पुस्तकों से लगाव है। हर उस इंसान से जो किताबों को अपने बच्चे की तरह संभालकर रखते है। चलएि साहब किसी ने पुस्तक मेले का मजा लिया हो या ना लिया हो लेकिन मैंने एक बार फिर से कुंभ में स्नान कर लिया।