Sunday, December 12, 2010
क्यों जरूरी हैं उमा ?
Monday, October 25, 2010
योजनाएं बनाम ठंडा बस्ता
एक होता है बस्ता और एक होता है ठंडा बस्ता। आपने बस्ते तो बहुत देखें होंगे लेकिन ठंडे बस्ते के बारे में केवल सुना होगा। या फिर महसूस किया होगा। हमारे देश में समुचित वज़न के आभाव में फाइलें ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। और वो तभी बाहर आ पाती है। जब मुट्ठी गर्म हो जाती है या फिर सुविधा षुल्क का चढ़ावा चढ़ जाता है। यदि आप चाहते है कि आपकी फाइल ठंडे बस्ते का मुंह ना देखें तो फाइल प्रस्तुत करते ही मुंह दिखाई की रस्म अदा कर दीजिए। वरना आप जाने और आपका काम। ऐसा नहीं है कि सिर्फ चढ़ावे या कहें सुविधा शुल्क के अभाव में फाइलें ठंडे बस्ते के हवाले कर दी जाती है। कुछ ऐसी भी योजनाएं है जिनसे फाइलें टेबल-दर- टेबल आगे बढ़ जाती है। यह योजना है जुगाड़ की। जिस तरह देश प्रदेश और राजनीतिक पार्टियों का प्रतीक होता है उसी तरह ठंडा बस्ता भी राजनेताओं और अफसरशाही का प्रतीक होता है। चुनावी रैलियों में नेता बड़े-बडे़ वादे करते है। बड़ी-बड़ी योजनाएं लाने की बात करते है। लेकिन चुनाव जीतने के बाद वादें और योजनाएं ठंडे बस्ते में। इसी तरह हर विभाग में ठंडा बस्ता होता है। जहां फाइलें साल-दर-साल धूल फांकती रहती है। बड़े अरमानों के साथ लोग निवेदन करते हैं आवेदन करते है। और लोगों के ये अरमानों के आवेदन ठंडे बस्ते में पहुंच कर बेदम हो जाते है।
हमारे देश में बड़े ही जोरशोर से योजनाएं बनती है। 2 फुट चौडे़ 3 फुट लंबे ग्रेनाइट के पत्थर पर सुनहरें अक्षरों में योजना और शिलान्यास करने वाले नेता का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा जाता है। लोगों में आशा बंधती है कि अब काम शुरू होगा। कुछ दिनों तक बड़े-बड़े अफसर सर्वे और काम कैसे होगा इसके लिए दौरे करते है। लेकिन योजनाओं को धरातल की वास्तविकता पर आने में सालों बीत जाते है। कभी धन के आभाव में तो कभी सरकारी हुकमरानों की उदासीनता के चलते और अगर इस बीच सत्ता परिवर्तन हो गई तो फिर उस योजना का भगवान ही मालिक है। ग्रेनाइट पत्थर पर लिखे सुनहरें अक्षर वक़्त के साथ काले पड़ जाते है। लेकिन काम ठंडे बस्ते से बाहर नहीं आ पाता।
कभी-कभी ये ठंडा बस्ता दुश्मनी निकालने के काम में भी आता है। यदि कोई सीधे आपसे नहीं भिड़ सकता तो वो आपकी फाइल अपने प्रबंध तंत्र सक्रिय कर ठंडे बस्ते में पहुंचा देता है। ठंडा बस्ता वो बिच्छू है जिसका कंाटा पानी भी नहीं मांगता। अभी-अभी तो जवानी के दिनों में गई फाइल तब बाहर आती है। जब आप अपनी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर होते है। वैसे भी जब सूखे में पूरी फसल बर्बाद हो गई उसके बाद बरसें पानी का क्या काम। आज देश युवाओं का है। हर क्षेत्र में युवा आगे आ रहे है। वो कुछ करना चाहते है। लेकिन कुछ वरिष्ठ लोग उनके कामों में रोड़ा बन जाते है। युवा में जोश होता है। वो पहले दिन आफिस में आकर देखता है कि दो अधिकारियों के बीच में इतनी फाइलें इक्कट्ठा हो गई है। कि दीवार बन गई। वो इन फाइलों की बनी दीवार को गिराना चाहता है। कुछ दिनों तक एक दो ईट गिराता है। लेकिन दो चार महीने बीतने के बाद उसे भी आटे-दाल का भाव पता चल जाता है। वो देखता है कि एक ओर वो दीवार गिरा रहा है तो दूसरी ओर एक मजबूत दीवार खड़ी हो रही है। जिसकी चार दीवारी में रिटायर्ड होने तक काम करना है। ये हमारे देष की ऐसी व्यवस्था है जिससे हमें अपने जीवन में कई बार दो चार होना पड़ता है। हम चाहते है कि व्यवस्था में सुधार हो लेकिन कही ना कही इस व्यवस्था के लिए हम ही ज़िम्मेदार है क्योकि हम लोग ही है जो आपने काम को जल्दी पूरा कराने के लिए सुविधा षुल्क दे देते है। यानी अगर हम अपनी सोच बदलेंगे तो समाज की सोच अपने आप बदल जाएगी। महेश चतुर्वेदी
नफे-नुकसान के तराजू पर जाति
हमारे आसपास की दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है। अमूमन इसका अहसास हमें तभी होता है। जब हम कुछ अरसे बाद किसी पुरानी जगह पर जाते है। आज के वक़्त में गांव के भौगोलिक स्थिति में खास अंतर नहीं आया था। और न ही उस पूरे क्षेत्र की आर्थिक या सामाजिक स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा था। पक्की चौड़ी सड़क ने जरूर इस गांवों को आसपास के दूसरे गांवों से जोड़ दिया है लेकिन यहां आज भी ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने है। मगर जो बदलाव इस दौरान इस गांव में आए। वो है लोगों की सोच। देष में हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में इस बार फिर जाति की फांस अटक गई है। जनगणना में जाति को षामिल करने की मांग आज से दस साल पहले 2001 में जनगणना षुरू होने से पहले भी उठी थी। पर तब इस मांग को बिना किसी सुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
जाति के तरफदारः इस बार जनगणना के साथ राश्ट्रीय पापुलेषन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है। इसके आधार पर हर नागरिक को परमानेंट आइडेंटीफिकेषन मिलेगा। यानी जिसकी जो पहचान होगी। वह कुछ दिनों के लिए दस्तावेज बंद होकर तय हो जाएगी। इसीलिए दस साल पहले जो मांग अधिकतर पिछड़ा वर्ग कमिषनों की सिफारिषों और जनसंख्यिकी के कुछ विद्वानों की मार्फत कमजोर स्वरों में की गई थी। इस बार उसे पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली पार्टियां जोरषोर से उठा रही है। यहां तक कि बीजेपी जैसे राश्ट्रीय दल ने भी इसके पक्ष में है। यूपीए सरकार के भीतर भी जाति और जनगणना को जोड़ने के तरफदार मौजूद है। और उनके दबाव के कारण इसके खिलाफ फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं है। सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है। केवल यही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसीलिए षुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होनें संख्याओं का इस्तेमाल किया,पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व-अछूतों और आदिवासियों की विषेश स्थितियों के मदद्ेनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था। इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया।
राजनीति का आरक्षण........
संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय षैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में षामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई। आरक्षण,जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेषी थी। उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू है। पहला सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया षुरू हुई। दूसरा पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और साथ में उन्हें नौकरियों और षिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न अब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक षिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम है। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुक्ता बहुत कम होती है। यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता। तो उसके क्या परिणाम निकलते। उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है। वह काम नहीं हो पाता। दूसरे जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते है। वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते है। कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है। पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे गिनती में जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेष तो करते ही उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निष्चित संख्याएं नहीं है। इसलिए ऐसी मांगो को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा षामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंधन करते हुए। स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़
महेश चतुर्वेदी
Monday, June 14, 2010
बीजेपी का ब्रम्हार्स्त है मोदी
Thursday, June 10, 2010
अब क्यों जागी सरकार?
Wednesday, March 10, 2010
यूं तो ये बात जगजाहिर है कि गुंण्डे-माफिया हाथी के महावत बन गए हैं। पर चुनावों में लाज-शरम ही सही उनको अपने दायरे में रहना पड़ता था। पर पिछले दिनों जिस तरह से इंडियन जस्टिस पार्टी के बहादुर लाल सोनकर की हत्या की गई और फिर सोनकर समाज के वोट को रोकने का जो सर्वसमाज अभियान चलाया जा रहा है वो बहन जी को मंहगा पड़ सकता है। सत्ता के मद में चूर जंगली हाथी के दिल्ली कूच के सर्वजन अभियान में बहुजन का उसके प्रति विक्षोभ बढ़ता ही जा रहा है जो दूसरे चरण के मतदान के दौरान इलाहाबाद, फूलपुर, कौशांबी और बांदा समेत आस-पास की सीटों पर साफ दिखा।
कभी
जवाहर लाल नेहरु की सीट रही फूलपुर के मैनापुर, मदारीपुर, जलालपुर,
तारापुरा समेत यमुना किनारे के बीसियों गांवों ने चुनाव बहिष्कार कर दिया।
जलालपुर में जहां 215 वोट पड़े वहीं लोकतंत्र की लाठी के बदौलत तारापुर
में 20 वोट पड़े। "साहब हमारा गांव अंबेडकर गांव है पर यहां न बिजली है न
पानी है ऊपर से है तो करवरिया, तो फिर हम क्यों वोट दें।" मैनापुर के
फूलचंद निषाद का यह संबोधन बसपा प्रत्याशी कपिल मुनि करवरिया के लिए था।
वे आगे कहते हैं कि करवरिया की ये जो चमचमाती हुई गाड़ियां देखते हैं वो
हम बालू मजदूरों के खून को चूस कर ली गई हैं। निषाद जो बसपा के पारंपरिक
वोटर है आज वो नदी से बालू निकालने के लिए हर खेप पर 200 रुपए बालू
माफियाओं को देने के लिए मजबूर हैं। यहां करवरिया की पूरी पहचान ही बालू
ठेकेदार की है। यहीं के रामचंद्र निषाद बताते हैं कि 200 वाला रेट नया है
इससे पहले 100 और 50 वाला था। पूछने पर कहते हैं कि साहब करवरिया को बहन
जी को पैसा देना होता है न।
यमुना
के इस पूरे क्षेत्र में बालू माफियाओं के खिलाफ चल रहे आंदोलन में सीपीआई
एमएल न्यू डेमोक्रेसी की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेसी के इस पूरे
आंदोलन को नक्सल गतिविधियों के रुप प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है।
जिसे करवरिया पोषित स्थानीय मीडिया जोर-शोर से कर रही है। जबकि न्यू
डेमोक्रेशी चुनावी लोकतंत्र में आस्था रखने वाली पार्टी है इसकी तस्दीक
इलाहाबाद से उनके प्रत्याशी हीरालाल का चुनाव लड़ना है। न्यू डेमोक्रेसी
के नेता सुरेश चंद्र कहते हैं कि लाल सलाम का हौव्वा खड़ा कर इस पूरे
क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची में लाने साजिश चल रही है,
जिससे उसके नाम पर भारी पैमाने में यहां सरकारी पैकेज आए और शासन-प्रशासन
उसकी बंदरबाट कर सके।
`हां
हम लोगों ने ही मारा। मारा ही नहीं नंगा करके पीटते हुए घुमाया और सूअर
बाड़े में बंद कर दिया था। वो हमारे जाति-बिरादरी के लोगों को मारकर पेड़
पर टांग दे रहे हैं और हमसे कह रहे है, वोट हमें ही पड़ेगा नहीं तो कहीं
नहीं पड़ेगा।´ नाम पूछने पर उस पूरे समूह के माथे पर रोष की लकीरें साफ तन
जाती हैं, जो एक स्वर में गुस्से से कहते हैं कि पुलिस में रपट लिखाओगे न,
जाओ लिखा देना पूरे गांव ने उसे पीटा था। इलाहाबाद लोकसभा क्षेत्र के
भुंडा गांव में बसपा के `ब्राह्मण भाई चारा समीति´ के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ
पाण्डेय ने सोनकर समाज के लोगों को अपने पक्ष में वोट डालने या कहीं नहीं
डालने के लिए दो तीन दिनों से लगातार धमका रहे थे। आखिरकार पारा तेइस
तारिख को मतदान बूथ पर गर्म हो गया और सोनकर समाज के लोगों ने उन्हें बुरी
तरह पीटा।
बालू
खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना भी बालू मजदूरों को बेरोजगारी
और भुखमरी की ओर धकेल चुका है। जब कि सरकार और न्यायलयों ने अपने कई
महत्वपूर्ण निर्देशों में स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का
उपयोग किसी भी सूरत में न हो। लेकिन भ्रष्ट प्रशासन और हाथी सवार माफिया
की मिली भगत से उच्चन्यायलय के निर्देशों की खुलेआम धज्जीयां उड़ाई जा
रहीं है। चायल के एस.डी.एम. अनिल कुमार उपाध्याय तो पूरी बेशर्मी से झूठ
बोलते हुए बालू उत्खनन माफिया द्वारा मशीनों के इस्तेमाल को वैध बताते हुए
दावा करते हैं कि हाईकोर्ट ने ही मशीनें लगाने का निर्देश दिया है। लेकिन
वे न तो फैसले की तिथि बताने को तैयार है और न ही उसकी प्रतिलिपी ही
दिखाने को।
जबकि
सच्चाई तो यह है कि जब बालू मजदूरों ने अपना रोजगार छिनते देख मशीनों को
बंद करने के लिए दसियों हजार की संख्या में जिला मुख्यालय पर धरना दिया तब
उच्च न्यायलय ने मामले को स्वत: ध्यान में लेते हुए इसमें हस्तक्षेप किया।
मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और
न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों
के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया
कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय।
आदेश में आगे सरकार सेे इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए बालू माफिया के
खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का आदेश भी दिया गया। लेकिन जब विधानसभा में
पूर्ण बहुमत हो, विपक्ष भ्रष्ट और अलोकप्रिय हो, और सपना प्रधानमंत्री
बनने का हो तब न्यायलयों की फैसलों की क्या औकात। हाथी के गणेश बनने के
बाद उस पर सवार हुए कपिल मुनी करवरिया हों या कबीना मंत्री और `इनको मारो
जूते चार´ के जमाने वाले ख़ाटी महावत इंद्रजीत सरोज सभी की मशाीनें अपने
ही पारंपरिक मल्लाह वोटरों को मुंह चिढ़ा रही हैं। दरअसल इस पूरे क्षेत्र
में दबंगई, वो चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, का अखाड़ा नदी और रेत ही रहा
है। जिस पर करवरिया कुनबा शुरु से ही एक मजबूत पाला है। जिसके आतंक का
अंदाजा इसी से लग जाता है कि कपिल मुनि करवरिया के पिता वशिष्ठ मुनि
करवरिया ऊर्फ भुक्कल महराज जिन पर आधा दर्जन हत्या और डकैती के आरोप थे
अपने विरोधियों को पालतू मगरमच्छों के आगे जिन्दा डाल देने के लिए कुख्यात
थे। भुक्कल महराज पर ये भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की राइफल से 17 पासी
समाज के लोगों की हत्या कर यमुना में फेंक दिया था।
पूरे इलाके में पासी मत निर्णायक है। इसी के चलते कौसांबी सुरक्षित सीट से
गिरीश पासी पर बसपा ने अपना दांव चला। बालू माफिया की पहचान वाले गिरीश ने
पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के राजनैतिक खासमखास सीपी सिंह की हत्या से
अपने `राजनैतिक करियर´ की शुरुआत की थी। कपिल मुनि करवरिया को टिकट मिलने
के चलते पासियों का एक बड़ा खेमा गिरीश के साथ नहीं है। जिसका असर ये रहा
कि मल्हीपुर से जहां ईवीएम को बैरंग लौटना पड़ा तो वहीं नंदापुर में एक
सैकड़ा भी मत नहीं पड़ा। यहां भी यमुना किनारे के दर्जनों गांवों के बालू
मजदूरों ने लोकतंत्र के इस महोत्सव का बहिष्कार कर अपनी मांगों को केंद्र
भी रही हैं।´ पर वे इस नए दलित उभार पर अविश्वास की मुहर लगाते हुए कहते
हैं कि चाहे बसपा हो या इंडियन जस्टिस पार्टी ये सभी ब्यूरोक्रेटों द्वारा
खड़ी की गई पार्टियां हैं। जो उदित राज बसपा पर दलित आंदोलन को कुंद करने
का आरोप लगाते हैं उन्होंने क्यों नहीं बहादुर लाल सोनकर की हत्या को
राजनैतिक मुद्दा बनाया। वे मायावती की कार्यनीति पर सूक्ष्मता से निगाह
डालते हुए कहते हैं कि बहन जी कानून व्यवस्था की बात करती हैं पर क्या
उन्होंने कभी मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा की या फिर किसी दलित उत्पीड़न की
घटना पर कोई आंदोलन खड़ा होने दिया। ऐसा उन्होंने नहीं किया क्योंकि वे
जानती हैं कि प्रतिरोध की चेतना से लैस दलित उनकी भी खिलाफत कर सकता है।
बहरहाल सर्वसमाज के इस बिगड़ते समीकरण का खामियाजा कांग्रेस से बसपा में
आए राजनैतिक गणितबाज अशोक बाजपेयी को इलाहाबाद में भुगतना पड़ सकता है।
Sunday, March 7, 2010
बदहाल विधर्व
कमजोर बारिश के कारण जलसमस्या के साथ-साथ पशुओं के लिए चारे का संकट किसानों के सामने है। जानकार कहते हैं कि इसी संकट के कारण सैकड़ों गायों को कसाइयों के हवाले किया जा चुका है। खेती के लिए किसानों को अच्छे बैलों की जोड़ी मिलना मुश्किल हो गया है। 5 वर्ष पूर्व 10 से 12,000 रूपये मे मिलने वाली बैलजोड़ी की कीमत आज 30 हजार रूपये से ऊपर पहुंच गई है। खेती के लिए निरूपयोगी, कमजोर पशु ही पहले कसाइयों को बेचे जाते थे, लेकिन इन दिनों चारे के अभाव के कारण मजबूत व उपयोगी पशु भी कसाइयों के हाथों बेचे जा रहे हैं। 30 हजार वाले पशु महज 5 से 7 हजार रु. में भी बेचकर किसान अपना घर चलाने का मजबूर हो रहे हैं।
Tuesday, March 2, 2010
महगाई पर मच मच
Wednesday, January 20, 2010
उत्तर प्र देश में समाजवाद
चलिए हम बात करते है समाजवाद की उत्तर प्रदेश में अगर १९९० के पहले की बात करे तो शायद ही कोई हो जो समाजवाद की भाषा जनता हो..... अगर हम पूरे देश की बात करे तो आज भी कुछ ही लोग होगे जिन्हों ने समाजवाद के जनक डॉ राम मनोहर लोहिया की सप्त क्रांति को पड़ा हो गा। या कहे जो लोग आज खुद को समाजवाद का पुरुधा कह रहे है... उन्हों ने किताब को कितना पड़ा होगा। अगर उत्तर प्रदेश के लोगो को सही मायने में समाजवाद का पाठ किसने सिखाया तो सबसे पहले मुलायम सिंह का ही नाम सामने आता है। मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने एक दसवी क्लास के स्टुडेंट को अपने हक़ के लिए समाज से लड़ना सिखाया.... ये मुलायम ही थे जिन्हों ने लोहिया के पाठ पर चल के पूरे देश को हमेसा जोड़ने की बात की ... लेकिन जिस तरह किसी घर के सभी लोग एक जैसा नहीं काम करते उसी तरह समाज वादी पार्टी में सारे नेता एक सा काम नहीं करते... कुछ केवल कुर्सी पाना चाहते है तो कुछ सत्ता की आढ़ में आपना काम निकलना चाहते है...