योजनाएं बनाम ठंडा बस्ता
एक होता है बस्ता और एक होता है ठंडा बस्ता। आपने बस्ते तो बहुत देखें होंगे लेकिन ठंडे बस्ते के बारे में केवल सुना होगा। या फिर महसूस किया होगा। हमारे देश में समुचित वज़न के आभाव में फाइलें ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। और वो तभी बाहर आ पाती है। जब मुट्ठी गर्म हो जाती है या फिर सुविधा षुल्क का चढ़ावा चढ़ जाता है। यदि आप चाहते है कि आपकी फाइल ठंडे बस्ते का मुंह ना देखें तो फाइल प्रस्तुत करते ही मुंह दिखाई की रस्म अदा कर दीजिए। वरना आप जाने और आपका काम। ऐसा नहीं है कि सिर्फ चढ़ावे या कहें सुविधा शुल्क के अभाव में फाइलें ठंडे बस्ते के हवाले कर दी जाती है। कुछ ऐसी भी योजनाएं है जिनसे फाइलें टेबल-दर- टेबल आगे बढ़ जाती है। यह योजना है जुगाड़ की। जिस तरह देश प्रदेश और राजनीतिक पार्टियों का प्रतीक होता है उसी तरह ठंडा बस्ता भी राजनेताओं और अफसरशाही का प्रतीक होता है। चुनावी रैलियों में नेता बड़े-बडे़ वादे करते है। बड़ी-बड़ी योजनाएं लाने की बात करते है। लेकिन चुनाव जीतने के बाद वादें और योजनाएं ठंडे बस्ते में। इसी तरह हर विभाग में ठंडा बस्ता होता है। जहां फाइलें साल-दर-साल धूल फांकती रहती है। बड़े अरमानों के साथ लोग निवेदन करते हैं आवेदन करते है। और लोगों के ये अरमानों के आवेदन ठंडे बस्ते में पहुंच कर बेदम हो जाते है।
हमारे देश में बड़े ही जोरशोर से योजनाएं बनती है। 2 फुट चौडे़ 3 फुट लंबे ग्रेनाइट के पत्थर पर सुनहरें अक्षरों में योजना और शिलान्यास करने वाले नेता का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा जाता है। लोगों में आशा बंधती है कि अब काम शुरू होगा। कुछ दिनों तक बड़े-बड़े अफसर सर्वे और काम कैसे होगा इसके लिए दौरे करते है। लेकिन योजनाओं को धरातल की वास्तविकता पर आने में सालों बीत जाते है। कभी धन के आभाव में तो कभी सरकारी हुकमरानों की उदासीनता के चलते और अगर इस बीच सत्ता परिवर्तन हो गई तो फिर उस योजना का भगवान ही मालिक है। ग्रेनाइट पत्थर पर लिखे सुनहरें अक्षर वक़्त के साथ काले पड़ जाते है। लेकिन काम ठंडे बस्ते से बाहर नहीं आ पाता।
कभी-कभी ये ठंडा बस्ता दुश्मनी निकालने के काम में भी आता है। यदि कोई सीधे आपसे नहीं भिड़ सकता तो वो आपकी फाइल अपने प्रबंध तंत्र सक्रिय कर ठंडे बस्ते में पहुंचा देता है। ठंडा बस्ता वो बिच्छू है जिसका कंाटा पानी भी नहीं मांगता। अभी-अभी तो जवानी के दिनों में गई फाइल तब बाहर आती है। जब आप अपनी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर होते है। वैसे भी जब सूखे में पूरी फसल बर्बाद हो गई उसके बाद बरसें पानी का क्या काम। आज देश युवाओं का है। हर क्षेत्र में युवा आगे आ रहे है। वो कुछ करना चाहते है। लेकिन कुछ वरिष्ठ लोग उनके कामों में रोड़ा बन जाते है। युवा में जोश होता है। वो पहले दिन आफिस में आकर देखता है कि दो अधिकारियों के बीच में इतनी फाइलें इक्कट्ठा हो गई है। कि दीवार बन गई। वो इन फाइलों की बनी दीवार को गिराना चाहता है। कुछ दिनों तक एक दो ईट गिराता है। लेकिन दो चार महीने बीतने के बाद उसे भी आटे-दाल का भाव पता चल जाता है। वो देखता है कि एक ओर वो दीवार गिरा रहा है तो दूसरी ओर एक मजबूत दीवार खड़ी हो रही है। जिसकी चार दीवारी में रिटायर्ड होने तक काम करना है। ये हमारे देष की ऐसी व्यवस्था है जिससे हमें अपने जीवन में कई बार दो चार होना पड़ता है। हम चाहते है कि व्यवस्था में सुधार हो लेकिन कही ना कही इस व्यवस्था के लिए हम ही ज़िम्मेदार है क्योकि हम लोग ही है जो आपने काम को जल्दी पूरा कराने के लिए सुविधा षुल्क दे देते है। यानी अगर हम अपनी सोच बदलेंगे तो समाज की सोच अपने आप बदल जाएगी। महेश चतुर्वेदी
Monday, October 25, 2010
नफे-नुकसान के तराजू पर जाति
नफे-नुकसान के तराजू पर जाति
हमारे आसपास की दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है। अमूमन इसका अहसास हमें तभी होता है। जब हम कुछ अरसे बाद किसी पुरानी जगह पर जाते है। आज के वक़्त में गांव के भौगोलिक स्थिति में खास अंतर नहीं आया था। और न ही उस पूरे क्षेत्र की आर्थिक या सामाजिक स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा था। पक्की चौड़ी सड़क ने जरूर इस गांवों को आसपास के दूसरे गांवों से जोड़ दिया है लेकिन यहां आज भी ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने है। मगर जो बदलाव इस दौरान इस गांव में आए। वो है लोगों की सोच। देष में हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में इस बार फिर जाति की फांस अटक गई है। जनगणना में जाति को षामिल करने की मांग आज से दस साल पहले 2001 में जनगणना षुरू होने से पहले भी उठी थी। पर तब इस मांग को बिना किसी सुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
जाति के तरफदारः इस बार जनगणना के साथ राश्ट्रीय पापुलेषन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है। इसके आधार पर हर नागरिक को परमानेंट आइडेंटीफिकेषन मिलेगा। यानी जिसकी जो पहचान होगी। वह कुछ दिनों के लिए दस्तावेज बंद होकर तय हो जाएगी। इसीलिए दस साल पहले जो मांग अधिकतर पिछड़ा वर्ग कमिषनों की सिफारिषों और जनसंख्यिकी के कुछ विद्वानों की मार्फत कमजोर स्वरों में की गई थी। इस बार उसे पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली पार्टियां जोरषोर से उठा रही है। यहां तक कि बीजेपी जैसे राश्ट्रीय दल ने भी इसके पक्ष में है। यूपीए सरकार के भीतर भी जाति और जनगणना को जोड़ने के तरफदार मौजूद है। और उनके दबाव के कारण इसके खिलाफ फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं है। सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है। केवल यही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसीलिए षुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होनें संख्याओं का इस्तेमाल किया,पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व-अछूतों और आदिवासियों की विषेश स्थितियों के मदद्ेनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था। इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया।
राजनीति का आरक्षण........
संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय षैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में षामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई। आरक्षण,जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेषी थी। उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू है। पहला सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया षुरू हुई। दूसरा पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और साथ में उन्हें नौकरियों और षिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न अब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक षिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम है। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुक्ता बहुत कम होती है। यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता। तो उसके क्या परिणाम निकलते। उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है। वह काम नहीं हो पाता। दूसरे जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते है। वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते है। कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है। पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे गिनती में जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेष तो करते ही उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निष्चित संख्याएं नहीं है। इसलिए ऐसी मांगो को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा षामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंधन करते हुए। स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़
महेश चतुर्वेदी
हमारे आसपास की दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है। अमूमन इसका अहसास हमें तभी होता है। जब हम कुछ अरसे बाद किसी पुरानी जगह पर जाते है। आज के वक़्त में गांव के भौगोलिक स्थिति में खास अंतर नहीं आया था। और न ही उस पूरे क्षेत्र की आर्थिक या सामाजिक स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा था। पक्की चौड़ी सड़क ने जरूर इस गांवों को आसपास के दूसरे गांवों से जोड़ दिया है लेकिन यहां आज भी ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने है। मगर जो बदलाव इस दौरान इस गांव में आए। वो है लोगों की सोच। देष में हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में इस बार फिर जाति की फांस अटक गई है। जनगणना में जाति को षामिल करने की मांग आज से दस साल पहले 2001 में जनगणना षुरू होने से पहले भी उठी थी। पर तब इस मांग को बिना किसी सुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
जाति के तरफदारः इस बार जनगणना के साथ राश्ट्रीय पापुलेषन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है। इसके आधार पर हर नागरिक को परमानेंट आइडेंटीफिकेषन मिलेगा। यानी जिसकी जो पहचान होगी। वह कुछ दिनों के लिए दस्तावेज बंद होकर तय हो जाएगी। इसीलिए दस साल पहले जो मांग अधिकतर पिछड़ा वर्ग कमिषनों की सिफारिषों और जनसंख्यिकी के कुछ विद्वानों की मार्फत कमजोर स्वरों में की गई थी। इस बार उसे पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली पार्टियां जोरषोर से उठा रही है। यहां तक कि बीजेपी जैसे राश्ट्रीय दल ने भी इसके पक्ष में है। यूपीए सरकार के भीतर भी जाति और जनगणना को जोड़ने के तरफदार मौजूद है। और उनके दबाव के कारण इसके खिलाफ फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं है। सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है। केवल यही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसीलिए षुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होनें संख्याओं का इस्तेमाल किया,पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व-अछूतों और आदिवासियों की विषेश स्थितियों के मदद्ेनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था। इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया।
राजनीति का आरक्षण........
संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय षैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में षामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई। आरक्षण,जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेषी थी। उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू है। पहला सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया षुरू हुई। दूसरा पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और साथ में उन्हें नौकरियों और षिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न अब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक षिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम है। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुक्ता बहुत कम होती है। यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता। तो उसके क्या परिणाम निकलते। उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है। वह काम नहीं हो पाता। दूसरे जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते है। वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते है। कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है। पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे गिनती में जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेष तो करते ही उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निष्चित संख्याएं नहीं है। इसलिए ऐसी मांगो को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा षामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंधन करते हुए। स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़
महेश चतुर्वेदी
Subscribe to:
Posts (Atom)