Monday, January 3, 2011
भाई लोग कुछ तो सोचो .....
दिल्ली में पिछले दिनों पुस्तक मेला लगा जिसमें देष ही नहीं विदेषों के भी प्रकाषकों ने भाग लिया। लेकिन लोगों ने कितना भाग लिया इसका अंदाजा लगाना मुष्किल है। क्योकि लोगों को जितनी संख्या में पहुंचना था उतनी संख्या में नहीं पहुंचे। कुछ ने सर्दी को वज़ह बताया तो कुछ ने कहा कि क्या करेगें जाके। मेरे ही कुछ दोस्तों ने तो यहां तक कह दिया कि पागल है क्या बुक फेयर जाएगा। न्यू ईयर पर कही और घूम के आ। नया साल था तो मैंने सोचा साल भर छुट्टी के दिन तो कही ना कही घूमने जाता हू। लेकिन इस बार बुक फेयर ही जाऊगा। वहां पहुंच के लगा कि मेरे दोस्त आने के लिए क्यों मना कर रहे थे। मेले दिल्ली का वो यूथ गायब था जो ट्रेड फेयर के दौरान प्रगति मैदान में दिख रहा था। बुक फेयर में जो लोग पहुंचे थे उनमें से ज्यादातर अपने बच्चों के साथ घूमने आए थे। ऐसा नहीं है कि मेले में लोग केवल मौज मस्ती के लिए ही आए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो पुस्तकों के इस मेले का भरपूर लाभ लेने के इरादे से यहां पहुंचे थे। क्योकि उन्हें मालूम है कि ये दिल्ली में साल में एक बार होने वाला पुस्तकों का महा कुंभ है। इस लिए वो इसमें डुबकी लगाने से भी नहीं चूकना चाहते। मेले में प्रकाषकों ने भी लोगों को लुभाने के लिए तरह-तरह के डिस्काउंट दे रखे थे। कोई दस फीसदी डिस्काउंट दे रहा था तो कोई 40-50 फीसदी तक का डिस्काउंट दे रहा था। लेकिन यहां का आलम देख कर बड़ा अजीब लगा। कि जो लोग पीज़ा,बर्गर और बड़े होटलों में डिस्कांउट और बिल नहीं देखते वो यहां 100 रूपये से भी कम कीमत की किताब पर डिस्कांउट देख रहे थे। षायद यही भारत की तस्वीर है कि अमीर के पास एैषो आरम के लिए तो पैसे है लेकिन ज्ञान की पुस्तकों के लिए पैसे नहीं है। लोग अपने बच्चों को आज डॉक्टर,इंजीनियर, और ना जाने क्या-क्या बनाना चाहते है। लेकिन लेखक नहीं बनाना चाहते। ये भी देष के एक विडंबना है। ये सवाल है खुद से हर उस इंसान से जिन्हें पुस्तकों से लगाव है। हर उस इंसान से जो किताबों को अपने बच्चे की तरह संभालकर रखते है। चलएि साहब किसी ने पुस्तक मेले का मजा लिया हो या ना लिया हो लेकिन मैंने एक बार फिर से कुंभ में स्नान कर लिया।
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